जाने कब ?

               इस कोरोना काल की अनिश्चितता गहराती ही जा रही है।  कितना कुछ हो गया बीते दिनों ,चाहे वो उत्तर- पश्चिम भारत में टिड्डी दलों का अटैक हो या फिर अम्फान चक्रवात का कहर ,या फिर  उत्तराखंड के जंगलों में लगने वाली आग हो अथवा असम और पूर्वोत्तर में मानसून से पहले ही बाढ़ जैसी स्थिति। बिन मौसम बरसात तो सब जगह हो रही थी । कुछ दिनों पहले बढ़ते तापमान ने राजस्थान ,दिल्ली में रिकॉर्ड तोडा था ,अब बारिश ने माहौल ठंडा किया है।महाराष्ट्र में भी चक्रवात निसर्ग ने बेचैनी पैदा कर दी है।  साथ में चीन भारत -सीमा विवाद में युद्ध जैसे हालात। अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में है ,गरीब -मजदूरों की दयनीय स्थिति ,रोजगार संकट ,भुखमरी जैसी स्थिति भयावह होती जा रही है। 

                हाल ही में एक और व्यथित समाचार सुनने मिला। अमेरिका की विफलता तो कोरोना ने जगजाहिर कर ही दी थी अब वहां दंगे भी शुरू हो गए और कारण जानकर तो और भी बुरा लगा। वाइट सुप्रीमसी (नीओ -नज़िस्म अर्थात नाजीवाद का नया रूप  ) सामान्यता रंगभेद ,नस्लभेद। जॉर्ज फ्लॉएड नामक व्यक्ति की जान चली गयी वो अफ्रीकीअमेरिकन(अश्वेत ) था । उसके विरोध में पूरे अमेरिका में आई कांट ब्रीद नामक एवं ब्लैक लाइव मैटर्स अभियान चल पड़ा है। पिछले साल न्यूजीलैंड में मस्जिद में हुए हमले के बारे में सुना ही होगा। उसका कारण भी वाइटसुप्रीमसी विचारधारा थी। जो एक अतिवादी विचारधारा है।

               वाइट सुप्रीमेसी -श्वेत वर्ण के लोगों की स्वयं को श्रेष्ठ समझने की मानसिकता और इसी सर्वश्रेष्ठता को बनाये रखने के लिए भेदभाव करना , हिंसा करना। ठीक वैसे ही जैसे हिटलर ने नाजियों को सर्वश्रेष्ठ माना और यहूदियों के साथ नरसंहार किया था।ये तो सेकंड वर्ल्ड वॉर की घटना है तो इसके वर्तमान में प्रचलित होने के क्या कारण होंगे यही सोच रहे हैं न आप ? तो इसका जवाब - वैश्वीकरण के दौर में जब पश्चिम के देशों में  पढाई ,जॉब के लिए बहुत सारे देशों से प्रवास हुआ। तब अफ्रीका के बहुत सारे देश जो हमेशा गृह युध्द में उलझे रहते हैं यहाँ मूलभूत सुविधाओं की कमी गरीबी ,भुखमरी  शिकार  यही अफ्रीकी पश्चिमी देशों में पलायन कर जाते हैं। जब दास प्रथा प्रचलित थी तब हज़ारों की संख्या में अफ्रीकी लोगों को ब्रिटिशों ने गुलाम बना कर अमेरिका और यूरोप  में ले गए  और उनके साथ अमानवीय बर्ताव किया , बाद में जब दास प्रथा समाप्त हुई और इन अफ्रीकी गुलामों को वहां के नागरिक का दर्जा मिला ।दास प्रथा तो समाप्त हो गयी लेकिन गोरे लोगों की मानसिकता में अब भी सर्वश्रेष्ठ नस्ल होने की भावना है ठीक उसी प्रकार जैसे भारत में ब्राम्हणों में श्रेष्ठ होने का मनोभाव होता ही है। अब जब प्रवासियों की संख्या पश्चिमी देशों में बढ़ने लगी और उनका दबदबा हर क्षेत्र में होने लगा तो  वहां के मूल नागरिकों को अपने ही देश में  जॉब के लिए प्रवासियों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है। ये एक कारण है कि वहां के नागरिकों में असंतोष भर गया है। उनके सर्वश्रेष्ठ की अवधारणा को ठेस पहुंची है। हालंकि  अमेरिका में  असमानता बहुत अधिक है। गोरे लोग औसतन अधिक पैसे कमाते हैं काले लोगों से,ऐसी स्थिति है कि  अमेरिका में यदि कोई गोरा औसतन 50000 डॉलर कमाता है तो वहीं एक अश्वेत अफ्रीकी अमेरिकी औसतन 25000 डॉलर ही कमा पाता है। बरसों से अमेरिका में श्वेत- अश्वेत  का मुद्दा  संवेदनशील बना हुआ है।  अब जब पूरी दुनिया धीरे- धीरे संरक्षणवाद की ओर कदम बढ़ा रही है ऐसे में प्रवासियों के लिए संकट उत्पन्न हो रहे हैं।और भेदभाव बढ़ने लगा है।  मार्टिन लूथर किंग ,नेल्सन मंडेला ,गाँधी ने जीवन भर रंगभेद को समाप्त करने के लिए प्रयास किये।
 

            भारत में भी रंगभेद कम नहीं है ,अन्यथा रंग गोरा करने वाली क्रीम इतनी न बिकती। आज भी ग्रामीण इलाकों में यदि लड़की सांवली या काली है तो अधिक दहेज़ की मांग की जाती है। सामान्यतः समाज का नजरिया ही ऐसा है कि गोरा रंग ही सुंदरता का प्रतीक है ,जबकि ये गलत धारणा है  कोई किस रंग का पैदा हुआ उसमे उसकी क्या गलती है ?रंग जन्मजात है  तो क्या इसकी वजह से हम मानवता भूल जायेंगे ?         #blackisbeautiful.... 
              
           "परिवार में लिंगभेद ,भारत में जातिवाद ,राजनीति में वंशवाद और अमेरिका में रंगवाद और विश्व में संरक्षणवाद  और आतंकवाद। ...... कैसी पढ़ी लिखी २१ वीं सदी का दौर है। "

            कैसी- कैसी मानसिकता बना के बैठे हैं हम -जातिवाद ,धर्म के नाम पर भेदभाव ,रंगभेद ,नस्लभेद ,उत्तरपूर्व के लोगों  के साथ भी मध्य भारत का बर्ताव भेदभाव वाला ही है। धर्म ,भाषा ,लिंग ,जाति के आधार पर भेदभाव ये मानवीय समाज के कलंक हैं और इसी का ही परिणाम है आतंकवाद ,नक्सलवाद ,उग्रवाद ,नृजातीय संघर्ष ,और अब ये वाइटसुप्रीमसी (नाजीवाद का नया रूप जो पश्चिमी देशों से शुरू हो रहा है। )

            आज जब पूरी दुनिया में लोग लाखों की संख्या में  कोरोना की चपेट में है ,दुःख में है ,अवसाद में है ,जगह -जगह आंदोलन हो रहे है। चाहे वो हांगकांग हो या अमेरिका , समस्याएं बढ़ती  जा रही है। आज दुखी हूँ मैं-कैसी दुनिया में रह रहे हैं हम ?ऐसे सवाल पैदा हो रहे  ,पर सोचने वाली बात है -दुनिया बहुत खूबसूरत है और हमेशा से ही थी , पर  मानव ने इसे बदसूरत बना दिया है -अपने लालच ,गुस्से,नफ़रत ,भेदभाव ,कुंठा ,जलन जैसी भावनाओं को बढ़ा कर। हम मानवता  भूल क्यों जाते हैं मानव अमर नहीं है ये सब क्षणभंगुर है। इस कोरोना महामारी ने तो ये अच्छी तरह से समझा भी दिया। 

                जाने कब ? ऐसी सामान्य स्थिति बनेगी जहाँ लोग बिना भेदभाव के मानव को मानव समझ कर अपने इंसान होने का फ़र्ज़ निभाएंगे। मुझे लगता है ये केवल कपोल कल्पना ही होगी।  कबीर दास की पंक्तियों के साथ छोड़कर जा रही। ........ अपनी राय कमेंट में लिखें। 

                         "तुम कत ब्राम्हण ,हम कत  सुत  ,
                                    हम कत लोहू ,तुम कत दूध। 
                              एक बूँद ,एके मलमूतर ,
                                       एक चाम ,एक गुदा। 
                                एक जोनि में सब उत्पन्ना ,
                                           को ब्राम्हण को सुता। "
                                                                 -कबीर 
           All i believe is that  every life matters and we need to be more loving ...........

    

टिप्पणियाँ

  1. आज काफी उमदा लिखा गया है।। बहुत ही सुंदर 👏😄👌😅🇮🇳

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  2. जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
    वास्तव में आज हमें ऐसे ज्ञान की आवश्यकता है जो निःस्वार्थ मानव कल्य़ाण एवं प्रकृति की संरक्षण कि मार्ग प्रशस्त करता हो ...
    बहुत ही वृहद विचार धारा का प्रवाह ....
    👌👌👌👌

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  3. बहुत सुंदर वास्तव में चिंतनीय💐💐💐💐

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  4. It's very saddening that even the world where innovations, technology, lifestyle every thing is growing rapidly.....we humans still don't bother about the emotion of eachother.....we still don't realise the fact that actual growth is in growing together, by valuing each other....without it no matter how fast we grow it's baseless.
    Thankyou for this beautiful article which actually force one to question that are inspite of living in this developing era are we actually growing??......and this question is actually a need today....kudos to you for such effort👏👏

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