त्वरित न्याय
त्वरित न्याय
"नई हवाओं की सोहबत बिगाड़ देती है,
कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है।
जुर्म करने वाले उतने बुरे नहीं होते ये जो अदालत है उनको समय पर सजा न देके बिगाड़ देती है। "
हॉल ही में जब तीसरी बार निर्भया रेप केस के गुनाहगारों की फांसी टल गयी। तब मुझे बड़ा गुस्सा आया। (हालंकि फिर से नयी डेथ वारंट जारी की गयी है २० मार्च को )गुस्सा इस बात पे नहीं कि उनको फांसी नहीं हुई बल्कि उस बात पे जो निर्भया के माँ -बाप की धैर्य की परीक्षा इतनी लम्बी क्यों है। पिछले ८ साल से वो हर रोज़ सोचते होंगे कि कब उनकी बेटी को न्याय मिलेगा ?इतना दुःख झेलने के बाद क्या उनका जीवन सामान्य हो पायेगा ? कब वो सुकून की नींद ले पाएंगे।
दूसरे पक्ष के बारे में भी सोचिये की अपराधी के परिवार वाले जिनका कोई कसूर नहीं है वो भी ये लम्बी मानसिक प्रताड़ना सहने को मजबूर हैं।
" justice delayed is justice denied."(न्याय में देरी न्याय से वंचित होने के समान है। )
मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो आक्रामक होकर कहूं की ऐसे अपराधियों को सरे आम फांसी पर लटका देना चाहिए। क्यूंकि मैं जानती हूँ केवल फांसी दे देने से ऐसे अपराध रूकने नहीं वाले हैं। उदाहरण के तौर पर आप हैदराबाद दिशा रेप केस को ही देखें। क्या एनकाउंटर (एक्स्ट्रा जुडिशियल किलिंग )कर देने के बाद अब रेप की घटनाएं बंद हो गयी हैं ?तो इसका जवाब है नहीं।
"स्याही " सूख नहीं पाती है पुराने "अखबार "की
के "खबर " आ जाती है एक और "बलात्कार "की
न फक्र है ,न नाज है
सोया हुआ समाज है।
"स्याही " सूख नहीं पाती है पुराने "अखबार "की
के "खबर " आ जाती है एक और "बलात्कार "की
न फक्र है ,न नाज है
सोया हुआ समाज है।
कहा जाता है - जैसे -जैसे समाज सभ्य समाज में तब्दील होता जाता है तब वहां दंड का स्वरुप भी लचीला होता जाता है।जैसे राजा महाराजा के समय हर छोटे -मोटे अपराध के लिए कठोर सजा मिलती थी लेकिन अब न्यायपालिका के द्वारा उतनी कठोर सजा नहीं दी जाती। इसका भी कारण है क्यूंकि सभ्य समाज अपराधी को सुधरने का दूसरा मौका देती है। अपराधियों के मानवाधिकारों की भी रक्षा करती है। और इसे ही प्राकृतिक न्याय कहा जाता है। और यही कारण है कि बहुत से देशों ने मृत्युदंड को समाप्त कर दिया है।
"नफरत अपराध से करो अपराधी से नहीं। " -गांधीजी
तो फिर सवाल उठता है कि रेप जैसे वीभत्स अपराध के लिए क्या सजा होनी चाहिए ? जिससे समाज में ऐसी घटनाये न हो। तो इसका एक ही जवाब है -सामाजिक परिवर्तन ,लोगो की सोच बदलनी होगी। और लोगों की सोच बदलने के लिए सरकार और समाज दोनों को मिलकर काम करना होगा। ( लैंगिक समानता को बढ़ावा देकर, शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करके ,गरीबी भुकमरी को समाप्त करके ,मानसिक स्वास्थ्य के लिए जागरूकता बढ़ाकर आदि )
"कभी कभी कानून में बदलाव सामाजिक परिवर्तन से पहले होता है। और सामजिक परिवर्तन को प्रोत्साहित करने का प्रयोजन भी होता है। कभी कभी कानून में बदलाव सामाजिक यथार्थ का परिणाम भी होता है। "
मुझे लगता है मैं विषय से थोड़ा भटक गई हूँ। ये विषय इतना विस्तृत है कि लिखने को बहुत कुछ है परन्तु केवल एक व्लॉग में लिखने पर कोई पढ़ेगा नहीं। अब हम अपने विषय त्वरित न्याय पर ही बात करते हैं।
हमारे देश में ऐसे वीभत्स अपराधों के लिए पर्याप्त कानून है। समस्या केवल क्रियान्वयन प्रकिया में है। न्याय व्यवस्था जटिल है। वर्तमान में अगर किसी चीज़ की सर्वाधिक आवश्यकता है तो वो -न्यायिक सुधार ,पुलिस सुधार की है। सरकार ,संसद और न्यायपालिका को जल्द से जल्द ऐसे सुधार करने चाहिए जिससे न्याय मिलने में देरी न हो। आपको जानकर हैरानी होगी कि भारत के सभी न्यायलयों में करीब ३ करोड़ मामले लंबित हैं। और इसका मुख्य कारण भारत में न्यायालयों की कमी ,न्यायधीशों की स्वीकृत पदों का कम होना तथा पदों की रिक्तता का होना है। वर्ष २०११ की जनगणना के आधार पर देश में प्रति १० लाख लोगों पर केवल १८ न्यायाधीश हैं विधि आयोग कि रिपोर्ट में सिफारिश की गयी थी कि १० लाख लोगों पर कम से कम ५० न्यायाधीश होने चाहिए।ऐसे में त्वरित न्याय कैसे होगा। ३ करोड़ लंबित मामलों में से कई मामले लम्बे समय से लंबित है। मामलों का लंबित होना ,पीड़ितों और ऐसे लोगों को ,जो किसी मामले के चलते जेल में कैद हैं और उनको दोषी करार नहीं दिया गया है,दोनों दृष्टिकोण से अन्याय को जन्म देता है। पीड़ितों के मामले में कुछ ऐसे सन्दर्भ भी हैं जिसमें आरोपी को दोषी ठहराये जाने में ३० वर्ष तक का टाइम लगा है। हालाँकि तब तक आरोपी की मृत्यु हो चुकी थी। तो वहीं दूसरी ओर भारत के जेलों में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे विचाराधीन कैदी बंद हैं जिनके मामले में अबतक कोई निर्णय नहीं दिया गया है। कई बार ऐसी स्थिति भी सामने आई है जब कैदी अपने आरोपों के दंड से अधिक समय जेल में बिता देते हैं। ऐसी स्थिति न्याय की दृष्टि से अन्याय को जन्म देती है। इसमें त्वरित सुधार होना चाहिए।
भारतीय न्याय प्रक्रिया इतनी जटिल एवं लंबी होने के कारण न्यायालय के प्रति लोगों के विश्वास में कमी आयी है। जहाँ एक ओर इससे न्यायलय के औचित्य पर प्रश्न उठता है। तो दूसरी ओर मामलों की सुनवाई में अधिक धन भी खर्च होता है। जिससे वंचित समुदायों के लिए इसकी पहुँच दुष्कर हो जाती है।
न्यायलयों में भ्रष्टाचार ,पारदर्शिता की कमी (कोलेजियम प्रणाली ),पदों की रिक्तता ,न्याय में देरी आदि समस्याओं ने न्यायिक व्यवस्था के समीप संकट की स्थिति को जन्म दिया है। न्यायपालिका की गरिमा और न्याय व्यवस्था में लोगों के विश्वास को बनाये रखने के लिए इन समस्याओं को समय रहते सुलझाना ही होगा। अन्यथा एक्स्ट्रा जुडिशल किलिंग और भीड़ हत्या (मॉब लिंचिंग ) की घटनाये बढ़ेगी जो समाज में अराजकता पैदा करेंगी। जो कि भयावह होगा।
हालंकि सरकार प्रयासरत है और कई नवाचारों को भी अपना रही है - जैसे-ई कोर्ट ,फास्ट्रैक कोर्ट ,मोबाइल अदालतों का गठन ,एन जे ए सी पर चर्चा जारी है। भविष्य में सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे। इसी आशा के साथ........
भारतीय न्याय प्रक्रिया इतनी जटिल एवं लंबी होने के कारण न्यायालय के प्रति लोगों के विश्वास में कमी आयी है। जहाँ एक ओर इससे न्यायलय के औचित्य पर प्रश्न उठता है। तो दूसरी ओर मामलों की सुनवाई में अधिक धन भी खर्च होता है। जिससे वंचित समुदायों के लिए इसकी पहुँच दुष्कर हो जाती है।
न्यायलयों में भ्रष्टाचार ,पारदर्शिता की कमी (कोलेजियम प्रणाली ),पदों की रिक्तता ,न्याय में देरी आदि समस्याओं ने न्यायिक व्यवस्था के समीप संकट की स्थिति को जन्म दिया है। न्यायपालिका की गरिमा और न्याय व्यवस्था में लोगों के विश्वास को बनाये रखने के लिए इन समस्याओं को समय रहते सुलझाना ही होगा। अन्यथा एक्स्ट्रा जुडिशल किलिंग और भीड़ हत्या (मॉब लिंचिंग ) की घटनाये बढ़ेगी जो समाज में अराजकता पैदा करेंगी। जो कि भयावह होगा।
हालंकि सरकार प्रयासरत है और कई नवाचारों को भी अपना रही है - जैसे-ई कोर्ट ,फास्ट्रैक कोर्ट ,मोबाइल अदालतों का गठन ,एन जे ए सी पर चर्चा जारी है। भविष्य में सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे। इसी आशा के साथ........
सरकारी प्रयास के साथ साथ जन आन्दोलन के माध्यम से ही सुधार संभव है ...
जवाब देंहटाएंसुधार अपरिहार्य हो चुका है
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