राजनीति का अपराधीकरण /अपराध का राजनीतिकरण

                       मैं लिखना कुछ और चाहती थी पर लिख इस टॉपिक पे रही हूं। मैं रोक नहीं पायी खुद को लिखने से  .... अजीब सी बात है ,अजीब हालात हैं। ...मैं पहले ही बताना चाहती हूँ मुझे अपराधियों से कोई सहानुभूति नहीं हैऔर न मैं ऐसे लोगों को सपोर्ट करती हूँ। मेरा मानना है कि किसी ने अपराध किया है तो उसको सजा जरूर मिलनी चाहिए। पर आज हम अपने खोखले हो चुके  सिस्टम की बात करेंगे।  कैसी घटना है...  एक अपराधी जिस पर ३० सालों से लगभग ६० लोगों की हत्या का आरोप हो ,५ लाख रूपए का इनाम रखा गया है।  एक बीजेपी विधायक की हत्या का भी आरोपी है और फिर भी अभी तक बचा रहा ?बिना राजनीतिक और पुलिस सहायता के एक गुंडा इतने दिनों तक कैसे बच सकता है ?सामान्य तौर पे यदि किसी आम आदमी पे एक पुलिस केस हो जाये तो उसकी पूरी जिंदगी बर्बाद हो जाती है। और एक गुंडा राजनीतिक सहायता पाकर इतना ताकतवर हो जाता है कि -एक पूरा संगठित अपराध करता है, ८ पुलिस वालो को मारने में कामयाब हो जाता है वो भी कुछ पुलिस वालों की सहायता से ही। और ये केवल एक नहीं था और भी बहुत सारे ऐसे गुंडे राजनेताओं की शरण में फलते- फूलते हैं ताकि धनबल और बाहु बल से चुनाव जीत सकें , गंदी राजनीति  कर सकें। 
              
         "क्या सच में  केवल  एनकाउंटर करने से न्याय मिल गया "?

              ईमानदारी से कहूं तो मुझे क्राइम स्टोरी पसंद नहीं है और राजनीति विषय भी कुछ खास आकर्षित नहीं करता। परन्तु बात यहां हमारे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की है। कैसे आये दिन पुलिस फेक एनकाउंटर (एक्स्ट्रा जुडिसियल किलिंग ) कर रही है। ऐसे में लोगों का पुलिस पर से भरोसा उठ रहा है। न्यायपालिका पर सवाल खड़े हो रहे ? क्या अब एनकाउंटर करके ही न्याय दिया जायेगा ? न्यायपालिका की स्थिति तो निर्भया केस में उजागर हो गई। न्यायपालिका से न्याय मिलने में इतना समय लग जाता है कि भारतीय जनमानस का धैर्य जवाब देने लगता है। ऐसे में न्याय के लिए अब लोग भीड़ हत्या और एनकाउंटर जैसे अपराध को प्रोत्साहित करने लगे हैं जो कि गलत है। ये केवल अराजकता फैला सकता है समाज में। हमें भूलना नहीं चाहिए कि हम एक लोकतांत्रिक देश में रहते हैं न कि तानाशाही में। ... 

           " अपराधी का अंत हो गया लेकिन अपराध और उसको संरक्षण देने वालों का क्या" ?

               मेरा सवाल बस इतना सा है। .. विकास दुबे अपराधी था पिछले ३० वर्षों से इतने दिन तक कैसे बचा रहा ?इसको तो बहुत पहले ही फांसी हो जानी चाहिए थी?क्यों नहीं हुई। और अब जब ८ पुलिस कर्मियों की जान चली गई तब उत्तरप्रदेश की पुलिस अपना बदला लेने के लिए उसका एनकाउंटर कर देती है। कुछ लोग ऐसा बोल रहे हैं अगर न्यायपालिका के माध्यम से उसे जेल होती तो वो फिर से बच जाता या फिर जेल से अपना कार्यक्रम चलाता इसलिए उसका एनकाउंटर होना जायज था। बात तो ये भी सही है ?पर सवाल है ऐसा क्यों ?आपको जानकर हैरानी होगी भारत के जेलों में बहुत सारे ऐसे कैदी हैं जिनके आरोप भी सिद्ध नहीं हुए है और कई तो ऐसे हैं जो अपराध की जो सजा होती उससे भी अधिक की सजा काट चुके हैं ?  तो क्या ये माना जाय कि " न्याय केवल धनवालों और ताकतवरों  के लिए है ? जो अपने लिए न्याय खरीद सकते हैं।

                हाल ही में तमिलनाडु में २ व्यापारियों को  पुलिस ने कस्टडी में लेकर इतना प्रताड़ित किया कि उनकी जान चली गयी।  ऐसे में पुलिस की भूमिका पर सवाल उठना लाजमी है ? अब तो ऐसा लग रहा है कि पुलिस केवल राजनेताओं का दास (स्लेव )बनकर रह गया है। जब वो अपना आदेश देंगे तब पुलिस उनके कहने पे कुछ भी कर जाएगी। 

                 अगर विकास दुबे ने ८ पुलिस वालों को नहीं मारा होता तो वो आज़ाद ही घूम रहा होता। उस पर ६० लोगों की हत्या का आरोप है। एक हिस्ट्री सीटर अपराधी है। सोचने वाली बात है -"अगर वो सही तरीके से पकड़ा जाता तो इसको सपोर्ट करने वाले पूरे नेटवर्क का खुलासा  होता। कितने बड़े सफेदपोशों के नाम सामने आते। कितने राज खुलते ?अब क्या मार दिया अपराधी को पर अपराध की जड़ तक पहुंचने का रास्ता भी बंद कर दिया एनकाउंटर करके। ये केवल मैं नहीं कह रही उस पुलिस कांस्टेबल की बीवी भी कह रही जो मारे गए ८ लोगों में शामिल है । अब ये सच सामने कभी नहीं आ पायेगा कि विकास दुबे के पीछे किनका सपोर्ट था ?

                  कभी -कभी लगता है  निर्भया केस में अगर ऐसा एनकाउंटर होता ना तो शायद में बहुत खुश होती क्यूंकि निर्भया की माँ बाप को ७ साल न्याय के लिए इंतज़ार नहीं करना पड़ता।  अब जो भी हुआ है -इसके बाद भी अगर न्यायपालिका खामोश रहती है तो ये गंभीर चिंता का विषय होगा। ऐसे एनकाउंटर होते रहे तो हमारे सीआर पीसी (क्रिमिनल प्रोसीजर कोड )का क्या महत्व रह जायेगा। आजकल जो धड़ल्ले से  राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण  हो रहा है  ये सही नहीं है। पर क्या कर सकते हैं इनका तो चोली दामन का साथ है। कितनी अजीब बात है हमारे जो सांसद  हैं उनमें लगभग  २८% ऐसे लोग हैं  जिनपर कोई न कोई अपराध के  मुकदमे चल रहे हैं।  और यही अपराधी प्रवित्ति के लोग आम जनता के लिए नीति निर्माण में सहयोग देते हैं कितनी हास्यास्पद बात है और हम ऐसे लोगों को वोट देते हैं। ये विकास दुबे आज अगर मारा नहीं जाता तो क्या पता भविष्य में नेता बनता और हम देखते रहते ???  

              "वर्तमान  में नक्सलवाद भी क्या है ?राजनीति का अपराधीकरण  है आपको नहीं लगता नक्सलवादियों को भी राजनेताओं और विधायकों का सपोर्ट होता है ? सोचिये और अपनी राय कमेंट में लिखिए। 
 

                  और आखिर में यही कहना  चाहती हूँ - जिस प्रकार कोरोना काल में लोगों की आदतों में बदलाव हो रहा ही ,अर्थव्यवस्था का स्वरुप बदल रहा है -उसी प्रकार हमारा जस्टिस सिस्टम (न्यायपालिका )में सुधार , पुलिस रिफार्म (सुधार )जो कि अपरिहार्य हो चला है उसमें भी बदलाव होना चाहिए। हम एक लोकतंत्र में रहते हैं और न्याय करने का तरीका भी लोकतान्त्रिक ही होना चाहिए। अन्यथा  वो दिन दूर नहीं जब लोग न्याय पाने के लिए पुलिस और न्यायपालिका के पास जाना बंद कर देंगे और अपने तरीके से न्याय करेंगे जिससे केवल अराजकता बढ़ेगी।     

टिप्पणियाँ

  1. बेहतरीन आर्टीकल 👌🏿
    आज की राजनीति, प्रशासनिक कमजोरियों का स्पष्ट आईना दिखाता हुआ आपका आर्टीकल 👌🏿👌🏿😍

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  2. बारिश की पुरानी यादें ताज़ा हो गईं... बेहतरीन 🥰😍

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