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समाजिक दूरी बनाम शरीरिक दूरी

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   सोशल डिस्टेंसिंग  बनाम फिजिकल डिस्टेंसिंग                  कोरोना के  कहर ने सामाजिक दूरी बनाने के लिए मजबूर किया है। कितना अनोखा शब्द  है ये मानव सामाजिक प्राणी है। और आज समाज से ही दूरी बनाये हुए है। पिछले कुछ  दिनों से सोशल डिस्टेंसिंग शब्द काफी प्रचलित रहा है। यदि हम विश्व स्वास्थ्य संगठन की कार्यप्रणाली पर ध्यान दें तो यह पाते हैं कि इसके द्वारा लगातार सोशल डिस्टेंसिंग (सामाजिक दूरी ) के स्थान पर फिजिकल डिस्टेंसिंग (शारीरिक दूरी ) की  अवधारणा को बल दिया जा रहा रहा है।                  विशेषज्ञों का ये मानना है कि  ये शारीरिक दूरी बनाये रखने का समय है  ,लेकिन साथ ही सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर एकजुट होने का समय है। प्रोफेसर डेनियल एल्ड्रिच का तो ये मानना है कि सोशल डिस्टेंसिंग शब्द का इस्तेमाल न सिर्फ गलत है बल्कि इसका अत्यधिक प्रयोग हानिकारक साबित होगा। इनके अनुसार अभी शारीरिक दूरी और सामाजिक तौर पर एकजुटता प्रदर्शित करने का समय है।                   सोशल डिस्टेंसिंग से संबंधित समस्याओं को जानने की कोशिश करते हैं  - सामाजिक दूरी को भारतीय जनमानस जिन अर्थों में

दुविधा में मन

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                                मन के द्वन्द              आजकल मेरी रुचि  मिथक कहानियां पढ़ने में बढ़ गयी है। हाल ही में मैंने डॉ देवदत्त पटनायक कि किताब मिथक पढ़ी। जो कि हिंदु आख्यानों को समझने का अच्छा प्रयास है। वैसे तो हम सबको ही रामायण ,महाभारत की कहानियां मुंह जबानी याद है। परन्तु जब पुराने मिथक प्रसंगो के साथ नया नजरिया जुड़ जाता है तब बात अलग बन जाती है। आज मैं आप सब के साथ वो  दार्शनिक नजरिया बाँटने जा रही हूँ।           द्वन्द में गिरना मन का स्वभाव है। मन को भ्रम बहुत प्रिय होता है। मन सीधे -सीधे कोई काम करता नहीं ,चूंकि मन हमारे शरीर का अंग नहीं बल्कि अवस्था है ,और इस अवस्था  का निर्माण भी हमने अपने विचार और स्मृतियों से किया है ,इसलिए इस पर नियंत्रण करना ,इसको समझना ही संकल्प को बचाने की सबसे बड़ी क्रिया होगी। यदि मन खुला और सक्रिय है तो कोई भी संकल्प को पूरा होने नहीं देगा। बार -बार विकल्प चुनेगा और भ्रमित लोग कभी कोई संकल्प पूरा नहीं कर पाते।           मन का भोजन विचार है ,इसलिए विचारों के मामले में मन को बारीकी  से समझिये। मन भी तीन प्रकार का होता है -

त्वरित न्याय

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                   त्वरित न्याय        "नई हवाओं की सोहबत बिगाड़ देती है,         कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है।         जुर्म करने वाले उतने बुरे नहीं होते                                                   ये जो अदालत है उनको समय पर सजा                                       न देके बिगाड़ देती है। "       हॉल   ही में जब तीसरी बार निर्भया रेप केस के गुनाहगारों  की फांसी टल गयी। तब मुझे बड़ा गुस्सा आया। (हालंकि फिर से नयी डेथ वारंट जारी की गयी है २०  मार्च को  )गुस्सा इस बात पे नहीं कि उनको फांसी नहीं हुई बल्कि उस बात पे जो निर्भया के माँ -बाप की धैर्य की परीक्षा इतनी लम्बी क्यों है। पिछले ८ साल से वो हर रोज़ सोचते होंगे  कि कब उनकी बेटी को  न्याय मिलेगा ?इतना दुःख झेलने के बाद क्या उनका जीवन सामान्य हो पायेगा ? कब वो सुकून की नींद ले पाएंगे।          दूसरे पक्ष के बारे में भी सोचिये की अपराधी के परिवार वाले जिनका कोई कसूर नहीं है वो भी ये लम्बी मानसिक प्रताड़ना सहने को मजबूर हैं।      "  justice delayed is justice denied."(न्याय में देरी न्याय से

महिला दिवस

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                             विमेंस डे   #breakthestereotype  #SheEqualsHe                           आजकल एक डिबेट चल पड़ा है। कुछ लड़कियां अगर बोलने की हिम्मत करती हैं तो उनपर नारीवादी  होने का   टैग लगा दिया जाता है। हाल ही में हमारे कुछ दोस्तों के बीच नारीवाद को लेकर बहस चल पड़ी और उनमें से एक ने कहा -यार हम मर्द कुछ भी कर लें हमेशा विलन ही रहेंगे। इतना भी क्या बुरा कर दिया यार हमने औरतों के साथ।  आज भी कितने मर्द कार में बैठने से पहले औरतों के लिए दरवाजा खोलते हैं ,सिनेमा हॉल में लेडीज फर्स्ट कहते हैं। बसों में औरतों के लिए रिज़र्व सीट होती है। और मेट्रो में तो पूरा डब्बा औरतों के लिए आरक्षित होता है। इतना सब तो कर दिया और क्या करें ?                     अच्छा इतना सब  कर दिया। जनाब पहले औरतों से तो पूछो वो बताएगी - "इतना सब मत करो ,खोलना है तो कार के दरवाजे नहीं बल्कि अपने दिमाग की खिड़कियां खोलो। लेडीज फर्स्ट नहीं बल्कि हम बराबर हैं बोलो। वीमेन एम्पावरमेंट के पोस्ट डोंट शेयर लेकिन ऑफिस में किसी वीमेन के आइडियाज सुनने के लिए बी फेयर। मेट्रो में डब्बा ,बस में

एथिकल वीगनिज्म

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                             एथिकल वीगनिज्म                 हाल ही में मैंने एक नये  दार्शनिक आस्था के बारे में पढ़ा और मुझे ये अच्छा लगा तो सोचा की क्यों ना आप लोगों के साथ साझा किया जाये।                     एथिकल वीगनिज्म  का वर्णन करने के लिए कह सकते हैं -" एक ऐसी जीवनशैली और पसंद को अपनाना जिनका उद्देश्य पशुओं को पीड़ा पहुँचाने से बचाना हो। "             वीगन वह व्यक्ति है जो पशु उत्पादों को नहीं खाता है या उनका उपयोग नहीं करता है। कुछ लोग वीगन भोजन अर्थात शाक आधारित आहार का सेवन (सभी पशु उत्पादों जैसे दुग्ध उत्पादों ,अंडे ,शहद ,मांस और मछली से मुक्त )को प्रयुक्त करना चुनते हैं। लेकिन एथिकल वीगन अपनी जीवनशैली को सभी प्रकार के पशु शोषण से बाहर रखने का प्रयास करते हैं। उदाहरण स्वरुप -वे ऊन या चमड़े से बने कपड़ों को पहनने या खरीदने से या उन कंपनियों की प्रसाधन सामग्रियां खरीदने से बचते हैं जो पशुओं पर उनका परीक्षण करती हैं।               एक एथिकल वीगन वह है जिसकी जीवन शैली और पसंद ,व्यावहारिक रूप से किसी  भी कीमत पर जानवरों पर क्रूरता और उनकी पीड़ा का कारण

विचार

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                                       विचार              "मस्तिष्क का विस्तार आकाश के विस्तार से अधिक विस्तृत होता है।" -एमिली डिकिंसन                    भारतीय परंपरा में मन को विचारों का केंद्र बताया गया  है और कहा गया है - "मन ही मनुष्य का बंधु है और वही शत्रु भी। " मन के भीतर उठते विचार ही हमारा निर्माण करते हैं। अतः मन को निम्न भूमि से हटाकर उसे उर्ध्वगामी बनाया जाना चाहिए। तभी हम जीवन का उत्थान कर सकते हैं।                    हमारा जीवन ग्रे शेड्स वाला है ,उसमें सफ़ेद पहलू भी हैं और स्याह पहलू  भी। ऐसा जीवन में रचनात्मक और विध्वंसात्मक की संयुक्त उपस्थिति के कारण ही है। जैसे - महात्मा गाँधी ने सकारात्मक विचारों को सत्य और अहिंसा के साथ सम्बद्ध किया था तथा विध्वंसात्मक विचारों को झूठ और हिंसा के साथ। गाँधी जी के लिए सच्चे विचार सृजन के प्रतीक थे तो हिंसक एवं झूठे विचार विध्वंस के।                                  शेक्सपियर ने भी कहा है -"कोई वस्तु अच्छी या बुरी नहीं है। बल्कि अच्छाई और बुराई का आधार हमारे विचार ही हैं। "            

पहली मर्तबा

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                     पहली मर्तबा                    हमें डुबाने में सक्षम तमाम चीज़ें पहली मर्तबा हमें कहाँ स्वीकार करती हैं ? लहरें पूरी कोशिश करती हैं हमें गहराइयों से दूर रखने की ,बार- बार  बाहर फेंकती हैं। सच्चा प्रेम हो,गहरे निहितार्थों वाला कोई दर्शन हो ,चाहे कोई गंभीर किताब ही क्यों न हो ,प्रथम दृष्टया बकवास ही साउंड करते हैं। नशे की चीज़ें भी पहली दफा हमें कहां स्वीकार करती हैं। पहले खांसी आती है फिर हिचकियां आती हैं ये उनका अपना तरीका है हमें खुद से दूर रखने का....... हमारा समर्पण जांचने का।                                         डूबने की हमारी इच्छा जिस समय इन प्रतिरोधों पर भारी पड़ने लगती है ,डूबाने वाली ये तमाम चीज़ें हमें और भी तन्मयता से स्वीकार कर लेती हैं.... फिर अपनी जिजीविषा को नकार कर हम इनमें डूब जाते हैं। ... और इसके बाद ही हमारा असल स्वरूप निखरकर सामने आता है।                 जब तक पूरा समर्पण नहीं होगा तब तक किसी भी चीज़ में मजा नहीं आएगा। चाहे कोई किताब ही क्यों न पढ़े जब तक समझ न आये तब तक  बार -बार पढ़े। राजनीति शास्त्र सबसे बेकार विषय  लगता था कुछ