आशा और निराशा

                 आशा और निराशा 

                    मनुष्य का जीवन आशा और निराशा का मिश्रण है। कभी हम ये सोचते हैं कि ऐसा करेंगे तो हमें सफलता मिल सकती है ,लेकिन दूसरे ही पल में हमें अपनी सफलता संदिग्ध लगने लगती है। फिर हम किन्तु- परन्तु के चक्कर में पड़ जाते हैं। यह हम पर निर्भर है कि हम किस दृष्टिकोण को अपनाते हैं।  यदि हम आशावान बनकर सफलता के प्रति आसक्त हैं ,तो हम हर हाल में सफलता को प्राप्त करेंगे ,लेकिन यदि हम निराशा के भवँर जाल में फंसकर यह चिंता करने लगेंगे कि हम सफल हो पाएंगे या नहीं ,तो हमारी सफलता भी संदिग्ध हो जाएगी। 

                 "हमारी हार और जीत को हमारा मन और मस्तिष्क ही तय करता है।"
                  " मन के हारे हार है मन के जीते जीत। "

                  कभी -कभी जरूर ऐसा होता है कि हम पूरी उम्मीद और निष्ठा के साथ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए  कठोर परिश्रम करते हैं ,लेकिन इसके बावजूद हम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाते। ऐसी स्थिति में भी हमें आशा का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। इस स्थिति में हमें यह मानना चाहिए कि यह आवश्यक नहीं कि हर लड़ाई जीती ही जाये , बल्कि हर हार से कुछ सीखा जाए। 
      
                  जब आप अपनी पिछली गलतियों से सबक सीखते हैं। आप स्वतः ही अपने लक्ष्य को अपने करीब पाते हैं। हमारे जीवन में दुःख और सुख बारी -बारी से आते रहते हैं। लेकिन दोनों ही परिस्थितियों में हमें सहज बने रहना चाहिए। जीवन जीने की कला यही है कि जब हमारे जीवन में सुख आये तो हमें जी भर के हंस लेना चाहिए। और जब दुःख आये तो उन्हें हंसी में  उड़ा देना चाहिए। समय चाहे सुख वाला हो या  दुःख वाला दोनों ही बीत जाते हैं। ये सुख में संयम और दुःख में धैर्य की परीक्षा होती है। 
   
                   "आशा अमर है ,उसकी आराधना कभी निष्फल नहीं होती।" -महात्मा गाँधी

      
                 आशावान लोगों के कई किस्से सुने होंगे  जैसे -जीवन में कुछ लोग खतरों से डरकर अपने मनपसंद रास्तों पर आगे बढ़ने से डरते हैं ,पर दुनियां में ऐसे हज़ारों उदाहरण  बिखरे पड़े हैं जहाँ शारीरिक मानसिक बाधाओं ने भी आशावान बहादुरों को रास्ता दे दिया है।  बाधाएं भी उनको रोक नहीं सकी। "महान गणितज्ञ जॉन फ़ोर्ब्स नैश जूनियर के ऊपर एक शानदार फिल्म 'द ब्यूटीफुल माइंड ' बनाई गई जिसमें बताया गया है कि सीज़ोफ्रेनिआ जैसी मानसिक बीमारी के बावजूद उन्होंने किस तरह से 'गेम थ्योरी 'की सर्जना की जिसके लिए उन्हें नोबल पुरस्कार दिया गया। 
                             
                    महान वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग जो मांसपेशियों पर अपना नियंत्रण खो चुके थे और व्हील चेयर पर अपने गाल की मांसपेशी के जरिये अपने चश्में पर लगे सेंसर को कम्प्यूटर से जोड़कर ही बातचीत कर सकते थे। अगर ऐसे लोग  इतनी परेशानियों के बाद भी जीवन को जिंदादिली से जी  सकते हैं तो हम क्यों नहीं ?


             "जब बिलकुल अन्धकार होता है तब इंसान सितारे देख पाता है। " -इमर्सन 
   
                    हमारे देश में भी ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। अरुणिमा सिन्हा ,सुधाचन्द्रन जैसे उदहारण तो प्रसिद्ध  हैं जिन्होंने हादसों  के बाद अपनी विकलांगता को पार पाते हुए नए प्रतिमान गढ़े। उम्मीद पे तो दुनियां टिकी है इसलिए आप भी आशावान होकर सकारात्म सोच लिए  प्रयत्न करते रहिये। 

              
  
          

          

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