सबसे सुंदर क्या है.....

                                            नजरिया 



एक बार एक व्यक्ति के मन में सवाल उठा की सर्वोत्तम सौंदर्य क्या है  ? वह उत्तर की खोज में चल पड़ा। उसने एक तपस्वी के सामने अपनी जिज्ञासा रखी। तपस्वी बोले-"श्रद्धा -भक्ति ही सबसे सुन्दर है ,जो मिटटी को भी ईश्वर में परिवर्तित कर देती है।"
       
               जिज्ञासु तपस्वी की बात से संतुष्ट नहीं हुआ और आगे बढ़ गया। उसे एक प्रेमी मिला   जिसने कहा -"इस दुनिया में सर्वोत्तम  सौंदर्य सिर्फ प्रेम है। प्रेम के बल पर इंसान दुनिया की बड़ी से बड़ी ताकत को पराजित कर सकता है। "

                उस जिज्ञासु को इससे भी संतुष्टि  नहीं हुई। उस समय एक योद्धा रक्तरंजित ,हताश लौट रहा था। उस व्यक्ति ने योद्धा से पूछा तो योद्धा बोला -" शक्ति  ही सर्वोत्तम  सौंदर्य है ,क्यों की युद्ध की विनाशलीला मैं स्वयं देख के आया हूँ। मैंने देखा कि किस कदर ईर्ष्या और लोभ से वशीभूत लड़ा गया युद्ध अनेक जिंदगियां बर्बाद कर देता है। "

            तभी एक स्त्री विलाप करती हुई नजर आई। उस व्यक्ति ने उस स्त्री से उसका कारण  जानना चाहा तो वह बोली -"मेरी बेटी खेलते खेलते जाने कहाँ चली गयी है। मैं उसे ढूंढ रही हूँ। " तभी स्त्री की पुत्री खेलते खेलते वापस पहुँच गयी। स्त्री ने उसे बाँहों में भर लिया। युवक ने उससे भी वही प्रश्न किया। स्त्री बोली-"मेरी नजर में तो ममता में ही सर्वोत्तम सौंदर्य छिपा है। "


                स्त्री की बातों से उसे अपने घर की याद आई। उसे एहसास हुआ की वह पिछले कई दिनों से वह अपने घर से बाहर  है।  वह घर के लिए चल पड़ा। घर पहुंचने पर उसकी पत्नी और बच्चे उससे लिपट गए। उन्हें देखकर उसे असीम शांति की  प्राप्ति हुई। उसे लगा कि -"उसका परिवार ही सर्वोत्तम सौंदर्य  है। "

                 
                लेकिन फिर उसने सोचा कि वास्तव में सर्वोत्तम सौंदर्य के प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग -अलग अर्थ हैं और जिसके पास उनमे से जो अर्थ मौजूद है उसकी नजर में वही सबसे महत्वपूर्ण है। 


             "तुम रजनी के चाँद बनोगे ,या दिन के मार्तण्ड प्रखर ?
               एक बात है  मुझे पूछनी ,फूल बनोगे या पत्थर ?
               तेल ,फुलेल ,क्रीम ,कंघी से नकली रूप सजाओगे  
                या असली सौंदर्य  लहू का आनन् पर चमकाओगे ?"
                                                                      -दिनकर                                                                        
                 दिनकर की ये पंक्तियाँ सुंदरता के पारम्परिक मानदंडों को तोड़ते हुए सौंदर्य के उस स्वरुप को उभारती है , जो चाँद, फूल और सुकुमारता में नहीं है ,बल्कि इससे इतर पत्थर ,धूप और श्रम में है। वे बाहरी सौंदर्य   को नकली बताते हुए उस सौंदर्य को उभारने की बात करते हैं ,जो श्रम से आता है ,जो लहु का सौंदर्य है। 

                 सुंदरता तो हर एक वस्तु में होती है ,रूप से कोई कुरूप नहीं होता। जिसके मन की रूचि जैसी  है , उसे वैसी  ही सुंदरता नजर आती है। कहा भी जाता है की लैला को देखना हो मजनूं  की आँख चाहिए। स्वाति नक्षत्र की बूंदों की मिठास पपीहा ही समझ सकता है और चन्द्रमा की किरणों का माधुर्य चकोर ही समझ सकता है। 
                     नजरिया  बदलो नज़ारे अपने आप बदल  जायेंगे। ........ 

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